Friday, July 11, 2014

योग वशिष्ट

- जो इन्द्रियों बुधि आदि का विषय नहीं उसको क्यों कर पा सकते हैं ?

जो मुमुक्षु है और जिनके वेदके  आश्रयसंयुत सात्विकवृति प्राप्त हुई है  उनको को गुरु से विध्या प्राप्त हुई है उससे अविध्या जाती रहती है | और आत्मतत्व प्रकाश होता है | जैस साबुन से धोने से मैल उतरता है वैसे ही गुरु और शास्त्र से अविध्या दूर होती है |जब कुछ काल में अविध्या दूर हो जाती है तब अपना आप ही दीखता है |

जब गुरु और शास्त्रों का मिलकर विचार प्राप्त होता है , तब  स्वरूप की प्राप्ति होती है द्वैत भ्रम मिट जाता है और आत्मा ही प्रकाशता है |

जैस अंधकार में प्रदार्थ हो और दीपक के प्रकाश से दिखे तो दीपक से नहीं पाया अपने आप से पाया है , तैसे ही गुरु और शास्त्रभी है | यदि दीपक हो और नेत्र न हो तब कैसे पयिगा और नेत्र हो और दीपक न हो तो भी नहीं पाया जाता जब दोनों हो तब प्रदार्थ पाया जाता है, तैसे ही गुरु और शास्त्र है

Yog Vashishtha - देव पूजा विचार

जैसी कामना हो और जो कुछ आरम्भ करो अथवा न करो सो अपने आप से चिन्मात्र संवित तत्व की अर्चना करो इससे यह देव प्रसन्न होता है और जब देव प्रसन्न होता हुआ तब प्रकट होता है | जब उसको पाया और स्थित हुआ तब राग द्वेष आदि शब्दों का अर्थ नहीं पाया जाता |

यदि राज्य अथवा दरिद्र व् सुख दुःख हो उसमे सम रहना ही देव अर्चना करनी है |

वह आत्मा शिव शांति रूप अनाभास है और एक ही प्रकाश रूप है | सम्पुरण  जगत प्रतीति मात्र है और आत्मा से भिन्न कुछ दवैत वस्तु आभास नहीं |

वृति का सदा अनुभव में स्थिति रहना और यथा प्राप्त में खेद से रहित विचारना यही उस देव की अर्चना है |